गेहूं की जैविक खेती से संबंधित कृषि क्रियाएं

गेहूं की जैविक खेती से संबंधित कृषि क्रियाएं


 


भूमि का चयन और तैयार करना


गेहूं की खेती विभिन्न प्रकार की भूमि में की जा सकती है। इसके लिए 6.5-7.8 पीएच रेंज और 1 प्रतिशत से अधिक जैविककार्बन युक्त सुनिकासी व्यवस्था वाली मध्यम दोमट और चिकनी दोमट मृदा उपयुक्त होती है। खेत में पीएच स्तर, जैविक कार्बन, सूक्ष्म पोषक तत्वों (एनपी.के.) और सूक्ष्मजीवों की संख्या की जांच करने के लिए वर्ष में एक बार मृदा की जांच करने की अपेक्षा होती है। यदि जैविक कार्बन का मात्रा 1 प्रतिशत से कम हो तो, 25-30 टन/हैक्टेयर कार्बनिक खाद का प्रयोग करें और खाद को भली भांति मिलाने के लिए खेत की 2-3 बार अच्छी तरह जुताई करें। प्रमाणि जैविक खेतों पर प्रतिबंधित सामग्रियों के प्रवाह को रोकने के लिए प्रमाणित जैविक खेतों और अजैविक खेतों के बीच लगभग 5-7 मीटर की दूरी पर पर्याप्त सुरक्षा पट्टी का प्रबन्ध किया जाए। गेहूं की खेती के लिए भली भांति सूक्ष्म जुताई किंतू छोटी बीज क्यारियां अपेक्षित होती हैं। खरीफ की कटाई के बाद, भूमि की जुताई की जाती है और पाटा अथवा किसी अन्य उपयुक्त जुताई यन्त्र द्वारा मिट्टी के बड़े पिण्डों को तोड़कर एकसमान सिंचाई के लिए खेत को भली भांति समतल बनाया जाता है। हल्के ढाल होने की स्थिति में, परिरेखा खेती विधि का आश्रय लेना चाहिए। हिमाचल प्रदेश में गेहूं की औसतन उपज 15.33 क्विंटल/हैक्टेयर है, जबकि राष्ट्रीय औसत 28. 02 क्विंटल/हैक्टेयर है। गेहूं की कम पैदावार के मुख्य कारण इसकी खेती 83 प्रतिशत बारानी भूमि पर की जा रही है, सुधरी किस्मों की कम भूमि पर खेती, खादों का कम प्रयोग, खरपतवार एवं कीट व बीमारियों का प्रकोप इत्यादि गेहूं की कम उपज का कारण है।


आकस्मिक प्रणाली


यदि कुल्लू घाटी (खण्ड -2) में सर्दियों की बारिश आने में बहुत देरी हो जाये तो गेहूं (VL-892) और गोभी- सरसों (किस्म शीतल) की बिजाई सबसे लाभदायक रहती है। उसके बाद गेहूं (HS-490) की बिजाई जनवरी के पहले पखवाड़े तक कर लेनी चाहिए


और ऐसी स्थिति में बारानी खेती के लिए दी गई नाईट्रोजन की मात्रा की 25 प्रतिशत अधिक मात्रा इन फसलों को देनी चाहिए। ऐसी परिस्थितियों में मसर (किस्म विपाशा), सरसों (किस्म बी.एस.एच.-1) या राया (किस्म वरूणा) को क्रमशः लगाना चाहिए।


बीज का उपचार


बीज के उपचार से पूर्व, सुनिश्चित कर लें कि बीज स्वस्थ, आकार में एकसमान और किसी किस्म की कीट क्षति अथवा रोग से मुक्त हों। बीजों को प्रत्येक 10 कि.ग्रा. बीज के लिए पहले बीजामृत और ट्रिकोडर्मा विरदी से क्रमशः 1.5 कि.ग्रा. और 80 ग्राम की दर से संसाधित किया जाता है। फिर से 10 कि.ग्रा. बीजों के लिए प्रत्येक 200 ग्राम एजोटोबैक्टर और पीएसबी जैव उर्वरक के मिश्रण से बीजों को संसाधित करें। बीजों को छाया में सुखाएं और संसाधित करने के 6-8 घण्टे में बुआई करें।


बीज दर और अंतराल


किसान प्रायः छट्टा देकर बीज बोते हैं परंतु इसमें निराई, गुड़ाई में कठिनाई आती है। और पैदावार भ्ज्ञी कम होती है। इसलिए गेहू को 22 सें.मी. कतारों में बोया जाना चाहिए। सही समय की बिजाई के लिए 90-110 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है। लेकिन बारानी क्षेत्रों में 20 दिसम्बर के बाद बिजाई के लिए 150 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टेयर उपयुक्त होता है। बीजों की बुआई 5-7.5 सें.मी. की गहराई पर, अभिमानतः ड्रिलिंग द्वारा अथवा हल के पीछे से की जाती है। सिंचाई की स्थितियों और बुआई के समय के आधार पर बीज की मात्रा और अंतराल भिन्न होता है जो निम्नानुसार है –


वर्षापोषित - अक्तूबर के मध्य से अक्तूबर के अंत तक बुआई, 75-90 कि.ग्रा./है0


सिंचित-15 नवम्बर से 05 दिसम्बर के दौरान बुआई, 90 कि.ग्रा./है0|


विलम्बित सिंचित-5 दिसम्बर से दिसंबर के अंत तक की अवधि के दौरान बुआई, 130-150 कि.ग्रा./है0


वर्षापोषित और सिंचित स्थितियों में पंक्ति दर पंक्ति दूरी 22.5 सें.मी. बनाए रखनी चाहिए। विलंबित बुआई के मामले में, पंक्ति दर पंक्ति से 15-18 सें.मी. तक कम कर देनी चाहिए। वर्षापोषित स्थितियों में कुछ किसान केवल 50-75 कि.ग्रा. गेहूं के बीजों की बुआई छितराकर करते हैं। पौधों की कम संख्या और आंतर अंतराल में बढ़ौतरी से टिलरस अधिक संख्या में होते हैं और उत्पादकता भी अधिक होती है। जैव विविधता बनाए रखने के लिए, बुआई के समय गेहूं के बीजों के साथ 3 कि.ग्रा. मसर | और 500 ग्राम सरसों के बीज मिलाए जा सकते हैं। गेहूं की प्रत्येक 8-12 पंक्तियों के बाद उभार लिए मेंढों पर एक पंक्ति राजमाह की बुआई की जा सकती है और गेहूं की प्रत्येक पंक्ति में कहीं-कहीं सरसों की बुआई की जा सकती है।


मृदा उर्वरकता प्रबंधन


जैविक खेती में रासायनिक खादों का प्रयोग नहीं किया जाता। अतः 15 टन देसी खाद + 2 टन बी.डी. कम्पोस्टर प्रति हैक्टेयर या केंचुआ खाद 10 टन + बी.डी. कम्पोस्ट 2 टन प्रति हैक्टेयर उपयुक्त होती है। गेहूं से पूर्व फसल (खरीफ में) प्रति एकड़ को पर्याप्त उर्वरक (1-2 टन कपोस्ट), 100 कि.ग्रा. रॉक - फॉस्फेट और 2 कि.ग्रा. पीएसबी दिया जाना चाहिए। खरीफ की फसल के बाद, फसल के अवशेषों को एकत्र कर ढेर के रूप में मेढ़ों पर रख दें। अवशेष के ढेर को गाय के गोबर - गौमूत्र के घोल (50 लीटर/टन) और ट्रिकोडर्मा विरदी (1 कि.ग्रा. प्रति टन) सस्य से भिगो दें। बुआई के समय 2.0 कि.ग्रा. पीएसबी के साथ 8-10 क्विंटल एफवाईएम/कपोस्ट अथवा 5-10 कि.ग्रा. चूना भी मिलाया जाना चाहिए। 200-300 कि.ग्रा. सांद्रित उर्वरक (शुष्क मुर्गी उर्वरक और खली का चूरा 1:1 अथवा कोई अन्य किस्म) और ड्रिलिंग से 150-200 कि.ग्रा. नीम/पोंगम/अरंडी/मूंगफली केक से उत्पादकता में बढ़ौतरी होगी। फॉस्फोरस की उपलब्धता में बढ़ौतरी के लिए अंडे के छिलके का उर्वरक अथवा बायोडाइनेमिक्स कपोस्ट भी प्रयोग किया जा सकता है। सूक्ष्मजीवों की शीघ्र बढ़ौतरी और विभिन्न पोषक तत्वों के शीघ्र मोचन के लिए संजीवक अथवा अमृतपानी अथवा जीवामृत का समय पर प्रयोग आवश्यक है। इन तीनों में से, जीवामृत सबसे अधिक प्रभावी है। बुआई के बाद पहली चार सिंचाईयों के दौरान यथा: 21, 42, 60 और 75 दिनों के बाद 500 लीटर जीवमृत प्रति हैक्टेयर प्रयोग की जाती है। फसल की उचित वृद्धि के लिए 20 दिनों के बाद 7-10 दिनों के अंतराल पर दानों के निर्माण की अवस्था तक पत्ते पर छिड़काव के तौर पर वर्मीवश और गौमूत्र का प्रयोग किया जाए। एक एकड़ क्षेत्र में छिड़काव के लिए लगभग 200 लीटर पानी में 20 लीटर गौमूत्र मिलाएं। पानी की उपलब्धता के आधार पर गेहूं की अच्छी उपज लेने के लिए निम्नलिखित सिंचाई की व्यवस्था करनी चाहिए।


सस्य विधियां और खरपतवार प्रबंधन


मल्चिंग और सतह प्रबंधन- बुआई से 24 - 48 घंटों के बाद ढाल के अनुसार खेतों को छोटी मेंढे बनाकर छोटी क्यारियों में विभाजित कर दें। मल्च का कार्य करने के लिए खरीफ की फसल के आंशिक तौर पर विघटित फसल अवशेष (मेंद्रों पर पड़े हुए) को पूरे खेत पर फैला दें।


निराई- सिंचित दशा में, न्यूनतम 3 बार निराई आवश्यक है, प्रथम 20-25 दिनों, द्वितीय 40-45 दिनों और तृतीय 60-65 दिनों के अंतराल पर। वर्षापोषित परिस्थितियों में दो बार निराई जरूरी होती है। जैविक प्रबंधन के तहत हाथ से निराई सबसे अधिक प्राथमिकता वाली विधि है।


अतिरिक्त फसल प्रणाली


गेहूं को प्रायः मक्की/धान की फसल प्रणाली के साथ लगाया जाता है। परंतु सिंचित अवस्थाओं में धान-मूली-आलू, मक्की-मूली-प्याज, मक्की-तोरिया-आलू और मक्की-तोरिया + गोभी सरसों फसल चक्र अधिक आय देने वाले हैं। असिंचित अवस्थाओं में मक्की-तोरिया + गोभी सरसों, मक्की-चना और मक्की+रौंगी-गेहूं फसल प्रणालियां, मक्की-गेहूं फसल चक्र से अधिक लाभदायक हैं। खंड-1 के असिंचित क्षेत्रों में अरहर (सरिता) - गेहूं (वी.एल.- 892/एनएस.-490) फसल चक्र मक्की -गेहूं फसल चक्र अधिक लाभदायक है।


रोग प्रबंधन


















रतुआ


 



रतुआ फफूदी, रोग की तीन भिन्न प्रजातियों की वजह से होता है। भूरा और पीला रतुआ उत्तरी - पश्चिमी भाषा में विशेष महत्व रखते हैं। इन क्षेत्रों में काला रतुआ काफी विलम्ब से दिखाई देता है और सामान्यतः काफी विलंब से बुआई वाले खेतों को छोड़ अधिक क्षति नहीं पहुंचाते। तथापि, मध्य और पूर्वी भारत में काला रतुआ भयंकर रूप में प्रकट होता है और काफी अधिक नुकसान पहुंचाता है। रतुओं को नियंत्रित करने हेतु सर्वाधिक प्रभावी विधि रतुआ - प्रतिरोधी किस्में उगाना है। गेहूं की किस्मों के बीच जैव विविधता से भी रतुआ की समस्या को प्रभावी तौर पर नियंत्रित किया जा सकता है। प्रत्येक फार्म पर एक समय में गेहूं की 3-4 किस्मों का प्रयोग करें। विलम्ब से बुआई अथवा देरी से परिपक्व होने वाली किस्मों से बचा जाए। फसल को रतुआ के संक्रमण से बचाने के लिए 200 लीटर पानी के सज्ञथ 5 लीटर खट्टी छाछ का छिड़काव करें। रतुआ के संक्रमण से बचने के लिए (चौलाई अथवा लाल भाजी - एक आम हरी पत्तेदार सब्जी) अथवा मैंथा (पुदीना) के पत्तों के चूर्ण को भी महीन छिड़काव (प्रति लीटर पानी 25-30 ग्राम सूखे पत्तों का पाउडर) के तौर पर प्रयोग किया जा सकता है। रतुआ संक्रमण रोकने के लिए हिबिस्कस रोसा-चानेन्सीस (चीनी गुलाब) के सूखे पत्तों का सार भी पत्तों पर छिड़काव के तौर पर प्रयोग किया जा सकता है।



खुला काला चुर्णिल रोग


 



सभी किस्मों में बाहरी लक्षण रोगग्रस्त पौधे की लगभग प्रत्येक बाल में गेहूं के दानों खाद्यान्न के स्थान पर काले चूर्ण का बनना है। जैविक खेती के तहत प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग सर्वश्रेष्ठ विकल्प है। इसके अतिरिक्त, चूंकि यह रोग बीजजन्य है, रोगमुक्त बीज के प्रयोग से इसे होने से रोका जा सकता है। शंका की स्थिति में, बीज को 5 प्रतिशत वर्मीवाश से संसाधिक करें। संक्रमित पौधों को उखाड़ दें और उनके बीजाणुओं के छितरने से पहले उन्हें जला दें। झुलसाने वाली गर्मी वाले क्षेत्रों में बीजों के धूप के ताप में संसाधन से भी इसके रोगवाहक को काफी हद तक समाप्त किया जा सकता है।


 



बंटुआ


 



उत्तरी भारत में गेहूं की सभी व्यावसायिक किस्मों में करनाल बंटुआ की समस्या आम है। किन्तु यह रोग पारंपरिक किस्मों में काफी दुर्लभ है। इस रोग से गेहूं के गुणवत्ता और परिमाण, दोनों में कमी आती है। खाद्यान्न का एक अंश, इसकी लीक के साथ-साथ काले चूर्ण सामग्री में परिवर्तित हो जाता है, जिसमें से बदबू आती है। प्रतिरोधी किस्में उगाना विकल्प है। रोगमुक्त बीजों का प्रयोग करें। बीजों को 5 प्रतिशत वर्मीवॉश से पूर्व संसाधित करें। 100 लीटर जल में 1 कि.ग्रा. सरसों के आटे और 5 लीटर दूध के मिश्रण का पत्तों पर छिड़काव के तौर पर प्रतिशत नमी की संस्तुति की जाती है। प्राकृतिक अथवा यांत्रिक स्रोतों से इसे सूखाया जाता है। 30 से 40 डिग्री से0 तापमान पर 13 प्रतिशत से अधिक नमी होने पर गेहूं में फफूदी लग सकती है जिसके कारण इसमें फफूदीदार दुर्गंध, बदरंगपन और निम्न आटा का उत्पादन होता है। गेहूं के लिए संतुलित नमी मात्रा 70 प्रतिशत सापेक्षिक आर्द्रता पर 13.5 प्रतिशत है। अल्पकाल के लिए, भण्डारण में 13 से 14 प्रतिशत नमी की मात्रा सह्य है जबकि 5 वर्ष तक की लंबी अवधि तक के लिए यह 11 से 12 प्रतिशत होनी चाहिए। इसे भृग से बचाने के लिए 0.5 प्रतिशत का तेज काली मिर्च पाउडर मिश्रित करें। गाय का गोबर अथवा 2 प्रतिशत नीम पाउडर भंडारित गेहूं को सूंडी और अन्य पीड़कों से बचाते हैं।



उपज


जैविक तौर पर उगाए गेहूं की औसत उत्पादकता 40-50 क्विंटल/है0 के बीच होती हैं।